जिंदगी गुजरी
अजब निर्मम सवालों में
खट गई थाने
कचहरी, अस्पतालों में।
एक ऋण को
दूसरे ऋण से चुकाने में,
ठीकरों से पेट की
ज्वाला बुझाने में
घिर गए शतरंज की
बेदर्द नालों में।
रीढ़ गर्दन, पीठ
झुककर हो गए दुहरे
हर जगह माथा टिकाते
धँस गए गहरे।
हम धुंधलका पी रहे
अंधे उजालों में।
गुत्थियाँ सुलझा रहा
कमजोर, कायर मन
तोड़ने पर है उतारू
हर नई उलझन
उंगलियाँ चटकीं
हथेली बंद जालों में।
देह पूरी जूझते
पिसते बनी ठठरी
कौन जाने कब खुलेगी
प्राण की गठरी,
रह गए फँसकर
इन्हीं बेढब ख्यालों में।